सती-शिव विवाह: एक अटूट प्रेम की गाथा। यह हिंदू पौराणिक कथा में सती की अद्वितीय भक्ति और शिव के साथ उनका विवाह विवर्तमान करती है। सती, जिन्हें दाक्षायनी भी कहा जाता है, ने अपनी पूरी समर्पणभावना से भगवान शिव को चुना। यह कथा प्रेम, भक्ति, और सांसारिक विवादों का उत्थान करती है, जबकि उनके विवाह से सृष्टि की समरसता को दर्शाती है।
सती-शिव विवाह
हिंदू धर्म के ग्रंथों में भगवान शिव और माता सती के विवाह की कथा बहुत प्रसिद्ध है। आइए जानते हैं इस कथा के बारे में:
सती का शिव से प्रेम:
- राजा दक्ष की पुत्री सती बचपन से ही भगवान शिव की भक्त थीं.
- उन्होंने कठोर तपस्या कर शिव को ही अपना पति पाने की इच्छा जताई.
- सती ने शिव के ध्यान भंग ना होने के लिए उनके विभिन्न रूपों की पूजा की और कठिन परीक्षाएं भी पास कीं.
दक्ष का विरोध:
- राजा दक्ष को शिव का वैरागी रूप और उनका रहन-सहन पसंद नहीं था.
- वह चाहते थे कि उनकी बेटी का विवाह किसी राजसी परिवार में हो.
- दक्ष ने भगवान शिव को विवाह में आमंत्रित नहीं किया, बल्कि उन्होंने एक स्वयंवर रखा, जिसमें कई राजकुमार आए.
सती का विद्रोह:
- सती ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर स्वयंवर में भगवान शिव को ही अपना पति चुना.
- भले ही शिव को विवाह में औपचारिक रूप से आमंत्रित नहीं किया गया था, लेकिन वे सती के प्रेम के कारण वहां पहुंचे.
- शिव और सती का विवाह वैदिक मंत्रों के साथ संपन्न हुआ.
दक्ष यज्ञ और अपमान:
समय बीतने के बाद राजा दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया.
उन्होंने सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन शिव और सती को नहीं बुलाया.
सती अपने पिता के यज्ञ में शामिल होने की इच्छा रखती थीं.
शिव ने उन्हें समझाने की कोशिश की, लेकिन सती अपने पिता से मिलने के लिए दृढ़ थीं.
यज्ञ में पहुंचकर सती ने देखा कि वहां शिव का कोई सम्मान नहीं दिया जा रहा है.
अपने पति का अपमान सहन न कर पाने के कारण सती ने योगाग्नि प्रज्वलित कर उसमें समाधि ले ली.
शिव का रौद्र रूप:
- सती के देहांत के समाचार से क्रोधित होकर भगवान शिव वीरभद्र रूप धर लेते हैं.
- वीरभद्र भगवान शिव के क्रोध का प्रतीक हैं.
- वीरभद्र दक्ष के यज्ञ को विध्वंस कर देते हैं और दक्ष का सिर काट देते हैं.
शिव और सती का पुनर्मिलन:
- बाद में भगवान विष्णु के हस्तक्षेप से शिव शांत होते हैं और दक्ष को जीवित कर देते हैं, लेकिन उन्हें बकरी का सिर लगाया जाता है.
- माता सती का शरीर कई खंडों में विभक्त हो जाता है, जिन्हें शक्तिपीठों के रूप में जाना जाता है.
- यह माना जाता है कि भविष्य में माता सती पार्वती के रूप में पुनर्जन्म लेकर शिव से विवाह करेंगी.
वैरागी शिव और राजा दक्ष
हिंदू धर्म की कथाओं के अनुसार, राजा दक्ष, माता सती के पिता, भगवान शिव को उनका दामाद बनने के लिए उपयुक्त नहीं मानते थे। उनके इस विरोध के पीछे कई कारण बताए जाते हैं:
साधारण जीवनशैली: भगवान शिव को एक साधारण जीवन जीने वाला वैरागी माना जाता है। वह हिमालय में रहते हैं, जंगली जानवरों की खाल पहनते हैं, और कैलाश पर्वत पर ध्यान में लीन रहते हैं। राजा दक्ष को लगता था कि शिव का ये रूप उनकी राजकुमारी के लिए उपयुक्त नहीं है।
अलग स्वभाव: भगवान शिव को अजीबोगरीब स्वभाव वाला माना जाता है। वह कभी क्रोधित हो जाते हैं तो कभी शांत रहते हैं। राजा दक्ष को शिव का यह व्यवहार उनकी बेटी के सुखी वैवाहिक जीवन के लिए ठीक नहीं लगता था।
दुर्लभ उपस्थिति: शिव को अधिकतर ध्यान में लीन रहने वाला बताया जाता है। राजा दक्ष शायद ये सोचते थे कि शिव सती का ध्यान नहीं रख पाएंगे।
चंद्रदेव के साथ विवाद: एक कथा के अनुसार, राजा दक्ष की एक और बेटी का विवाह चंद्रदेव से हुआ था। चंद्रदेव उनकी सभी बेटियों में सिर्फ एक को ही अधिक प्यार देते थे। जब दक्ष ने चंद्रदेव को समझाने की कोशिश की तो क्रोध में आकर उन्होंने चंद्रदेव को श्राप दे दिया। इस घटना के बाद से राजा दक्ष देवताओं से, खासकर शिव जैसे विद्रोही स्वभाव वाले देवों से दूर रहना चाहते थे।
इन कारणों से राजा दक्ष ने सती के विवाह के लिए स्वयंवर रखा, लेकिन उन्होंने शिव को आमंत्रित नहीं किया। हालाँकि, सती ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर भगवान शिव को ही अपना पति चुना।
चंद्रमा का अभिशाप: दक्ष के क्रोध का परिणाम
चंद्रदेव, जिन्हें सोम या इंदु के नाम से भी जाना जाता है, को अपनी सुंदरता और शीतलता के लिए जाना जाता है। दक्ष, प्रजापति और ब्रह्मा के पुत्र, की 27 पुत्रियां थीं, जिन्हें नक्षत्रों के नाम से जाना जाता है। दक्ष ने अपनी सभी पुत्रियों का विवाह चंद्रदेव से कर दिया। शादी से पहले, चंद्रदेव ने दक्ष से वादा किया था कि वह सभी पत्नियों के साथ समान व्यवहार करेंगे और उनसे समान रूप से प्रेम करेंगे।
हालांकि, चंद्रदेव रोहिणी नाम की अपनी चौथी पत्नी के प्रति सबसे अधिक आकर्षित थे। वह अपना अधिकांश समय रोहिणी के साथ बिताते थे और अन्य पत्नियों की उपेक्षा करते थे। उपेक्षित महसूस करने वाली अन्य पत्नियां अपने पिता दक्ष के पास गईं और चंद्रदेव की शिकायत की।
दक्ष क्रोधित हो गए और चंद्रदेव को श्राप दे दिया। उन्होंने कहा, “तुम्हारी शक्तियां और कांति हर दिन कम होती जाएगी।” यह श्राप लगने के बाद, चंद्रदेव की चमक कम हो गई और वह बीमार पड़ने लगे। वनस्पति भी मुरझाने लगी क्योंकि चंद्रदेव का प्रभाव कमजोर हो गया था।
अपने श्राप से पीड़ित होकर, चंद्रदेव भगवान शिव से मदद के लिए गए। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर, शिव प्रकट हुए और कहा, “मैं दक्ष के श्राप को वापस नहीं ले सकता, लेकिन मैं इसे कम कर सकता हूं। अब से, तुम 15 दिनों के लिए शुक्ल पक्ष में चमकते रहोगे और फिर 15 दिनों के लिए कृष्ण पक्ष में मंद पड़ जाओगे।”
इस तरह चंद्रमा का चक्र चलता रहा, यही कारण है कि चंद्रमा हर महीने बढ़ता और घटता रहता है।
सती का स्वयंवर: प्रेम की विजय
हिंदू धर्म की कथाओं में सती के स्वयंवर का वर्णन, प्रेम और दृढ़ संकल्प की एक प्रेरक कहानी है। आइए जानते हैं इस कथा के बारे में:
सती का अटूट प्रेम:
- राजा दक्ष की पुत्री सती बचपन से ही भगवान शिव की भक्त थीं।
- उन्हें शिव के वैरागी जीवन और तपस्या में गहरा आकर्षण था।
- उन्होंने दृढ़ निश्चय किया था कि शिव ही उनके पति होंगे।
दक्ष का विरोध:
- राजा दक्ष को शिव का रहन-सहन और उनका वैरागी रूप पसंद नहीं था।
- वह चाहते थे कि सती का विवाह किसी राजकुमार से हो, जो उनके सामाजिक पद को बनाए रखे।
- सती के शिव के प्रति प्रेम से अनजान दक्ष ने एक भव्य स्वयंवर का आयोजन किया।
स्वयंवर में विद्रोह:
- स्वयंवर में कई राजकुमारों को आमंत्रित किया गया।
- सती ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध जाने का निश्चय किया।
- उनके प्रेम की गहराई ऐसी थी कि उन्होंने किसी भी राजकुमार को माला पहनाने से इंकार कर दिया।
- अंत में सती भगवान शिव की प्रतिमा के समक्ष खड़ी हुईं और उन्हें ही अपना पति घोषित किया।
शिव का आगमन और विवाह:
- सती के प्रेम और दृढ़ संकल्प से प्रभावित होकर भगवान शिव स्वयंवर में प्रकट हुए।
- शिव और सती का विवाह वैदिक मंत्रों के साथ संपन्न हुआ।
- दक्ष को अपनी गलती का एहसास हुआ लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
यह कथा हमें क्या सिखाती है?
- सच्चा प्रेम सामाजिक बंधनों और परिस्थितियों से परे होता है।
- दृढ़ संकल्प और आस्था प्रेम को विजय दिला सकती है।
- सती का स्वयंवर प्रेम की शक्ति और उसके लिए किसी भी हद तक जाने की भावना का प्रतीक है।
शिव जी के आगमन की विशेषताएं:
भव्यता और विराटता:
- शिव जी का आगमन अक्सर भव्य और विराट रूप में होता है।
- वे आकाश से नंदी (बैल) पर सवार होकर आ सकते हैं, या फिर विशालकाय नाग (सर्प) पर सवार होकर प्रकट हो सकते हैं।
- उनके साथ उनके गण (भूत-प्रेत, देवता) भी होते हैं, जो उनकी शक्ति और भव्यता को दर्शाते हैं।
वैभव और आभूषण:
- शिव जी को अक्सर देवताओं के राजा के रूप में चित्रित किया जाता है, इसलिए उनके आगमन में वैभव और आभूषणों का प्रदर्शन होता है।
- वे सोने के मुकुट, हार, कंगन और अन्य आभूषण पहन सकते हैं।
- उनके शरीर पर भस्म (राख) लगी होती है, जो उनकी तपस्या और वैराग्य का प्रतीक है।
अलौकिक शक्तियां:
- शिव जी त्रिदेवों में से एक हैं, इसलिए उनके पास अलौकिक शक्तियां होती हैं।
- वे अपनी इच्छानुसार आकार बदल सकते हैं, अदृश्य हो सकते हैं, और प्राकृतिक शक्तियों को नियंत्रित कर सकते हैं।
- उनके आगमन से अक्सर भूकंप, तूफान या अन्य प्राकृतिक घटनाएं हो सकती हैं।
विनाशकारी रूप:
- शिव जी को विनाशकारी शक्ति के देवता के रूप में भी जाना जाता है।
- उनका आगमन कभी-कभी विनाश और प्रलय का संकेत दे सकता है।
- वे अपने त्रिशूल (तीन शाखाओं वाला भाला) से दुष्टों का नाश कर सकते हैं और बुराई को मिटा सकते हैं।
उदाहरण:
रामायण में, जब रावण सीता का अपहरण करके लंका ले जाता है, तो भगवान राम रावण से युद्ध करने के लिए शिव जी से सहायता मांगते हैं।
शिव जी रावण से युद्ध करने के लिए भयानक रूप में प्रकट होते हैं और रावण का वध कर देते हैं।
महाभारत में, जब कौरव और पांडवों के बीच युद्ध शुरू होता है, तो दोनों पक्ष शिव जी से अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना करते हैं।
शिव जी अर्जुन के पक्ष में युद्ध करते हैं और उन्हें विजय दिलाते हैं।
निष्कर्ष:
शिव जी के आगमन की विशेषताएं भव्यता, विराटता, वैभव, अलौकिक शक्तियां और विनाशकारी रूप से भरी होती हैं।
- वे देवताओं के राजा, विनाशकारी शक्ति के देवता और रक्षक दोनों हैं।
- उनकी उपस्थिति अक्सर परिवर्तन और शक्ति का संकेत देती है।