विष्णु पुराण भाग 1 के अध्याय शीर्षक “ब्रह्मादि की आयु और काल का स्वरूप” और “ब्रह्माजी की उत्पत्ति” ब्रह्मा, विष्णु और शिव के समय चक्र, ब्रह्मा की आयु, और सृष्टि की उत्पत्ति के रहस्यों का विस्तार से वर्णन करते हैं। इसमें ब्रह्मा की नाभि से ब्रह्माजी का जन्म, वराह भगवान द्वारा पृथ्वी का उद्धार, और ब्रह्माजी द्वारा विभिन्न लोकों की रचना की महत्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन है।
अध्याय 3:ब्रह्मादि की आयु और काल का स्वरूप
विष्णु पुराण के अध्याय “ब्रह्मादि की आयु और काल का स्वरूप” में ब्रह्मा, विष्णु, और शिव के समय चक्र का विस्तृत वर्णन है। इसमें ब्रह्मा के एक दिन (कल्प), चार युगों (सत्य, त्रेता, द्वापर, और कलियुग), महायुग, मन्वंतर, और ब्रह्मा की 100 दिव्य वर्षों की आयु का विवरण शामिल है। यह अध्याय सृष्टि के विभिन्न कालखंडों और ब्रह्मांडीय समय के मापदंडों को समझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
अध्याय 4:ब्रह्माजी की उत्पत्ति और वराह भगवान द्वारा पृथ्वी का उद्धार
विष्णु पुराण के अध्याय “ब्रह्माजी की उत्पत्ति और वराह भगवान द्वारा पृथ्वी का उद्धार” में ब्रह्माजी की उत्पत्ति, सृष्टि की रचना, और वराह अवतार का वर्णन है। इसमें बताया गया है कि ब्रह्माजी का जन्म भगवान विष्णु के नाभि से निकले कमल से हुआ और कैसे वराह भगवान ने हिरण्याक्ष नामक असुर से पृथ्वी को बचाकर उसकी स्थापना की। यह अध्याय ब्रह्मांड की सृष्टि और संरक्षण की महत्वपूर्ण घटनाओं का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है।
अध्याय 3:ब्रह्मादि की आयु और काल का स्वरूप
विष्णु पुराण में ब्रह्मादि की आयु और काल के स्वरूप का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसमें ब्रह्मा, विष्णु और शिव के समय चक्र और उनकी आयु के साथ-साथ सृष्टि के विभिन्न कालखंडों का भी वर्णन किया गया है।
ब्रह्मा की आयु:
ब्रह्मा की आयु को ब्रह्मा का एक दिन और रात के रूप में वर्णित किया गया है, जिसे “कल्प” कहा जाता है। ब्रह्मा के एक दिन (जिसे “कल्प” कहते हैं) में चौदह मन्वंतर होते हैं। एक मन्वंतर का समय चौबीस लाख दिव्य वर्षों का होता है।
ब्रह्मा का एक दिन (कल्प):
- एक कल्प = 1,000 महायुग
- एक महायुग = 4,320,000 मानव वर्ष
- 1,000 महायुग = 4,320,000,000 मानव वर्ष (एक ब्रह्मा का दिन)
- ब्रह्मा का एक दिन और एक रात = 8,640,000,000 मानव वर्ष
ब्रह्मा की आयु:
- ब्रह्मा की आयु 100 दिव्य वर्षों की होती है।
- एक दिव्य वर्ष = 360 मानव वर्ष
- ब्रह्मा की कुल आयु = 100 * 360 * 4,320,000,000 मानव वर्ष = 311,040,000,000,000 मानव वर्ष
काल का स्वरूप:
काल के स्वरूप को समझने के लिए इसे चार युगों में बांटा गया है, जो एक महायुग के अंतर्गत आते हैं:
- सत्य युग (कृत युग):
- अवधि: 1,728,000 मानव वर्ष
- इस युग में धर्म के चारों पैर (सत्य, तप, शौच, दया) पूर्ण रूप से विद्यमान रहते हैं।
- त्रेता युग:
- अवधि: 1,296,000 मानव वर्ष
- इस युग में धर्म के तीन पैर (सत्य, तप, दया) विद्यमान रहते हैं।
- द्वापर युग:
- अवधि: 864,000 मानव वर्ष
- इस युग में धर्म के दो पैर (सत्य, तप) विद्यमान रहते हैं।
- कलियुग:
- अवधि: 432,000 मानव वर्ष
- इस युग में धर्म का केवल एक पैर (सत्य) विद्यमान रहता है।
महायुग:
इन चार युगों का एक चक्र महायुग कहलाता है:
- महायुग = सत्य युग + त्रेता युग + द्वापर युग + कलियुग
- महायुग की कुल अवधि = 4,320,000 मानव वर्ष
कल्प:
1,000 महायुगों का एक चक्र एक कल्प कहलाता है:
- एक कल्प = 1,000 महायुग
- एक कल्प = 4,320,000,000 मानव वर्ष
मन्वंतर:
एक कल्प में चौदह मन्वंतर होते हैं और प्रत्येक मन्वंतर में एक मनु का शासन होता है:
- एक मन्वंतर = 71 महायुग
- एक मन्वंतर = 306,720,000 मानव वर्ष
ब्रह्मा का जीवन:
ब्रह्मा के 100 दिव्य वर्षों के बाद उनकी मृत्यु होती है और फिर पुनः सृष्टि का चक्र प्रारंभ होता है।
इस प्रकार, विष्णु पुराण में ब्रह्मा की आयु और काल के स्वरूप का अत्यंत विस्तार से वर्णन किया गया है। यह विवरण न केवल ब्रह्मा की आयु के मापदंड को स्पष्ट करता है, बल्कि सृष्टि के विभिन्न युगों और कालखंडों के बीच के समय के संबंध को भी दर्शाता है।
अध्याय 4:ब्रह्माजी की उत्पत्ति और वराह भगवान द्वारा पृथ्वी का उद्धार
ब्रह्माजी की उत्पत्ति:
विष्णु पुराण के अनुसार, ब्रह्माजी की उत्पत्ति भगवान विष्णु के नाभि से निकले हुए कमल से हुई थी। जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ, तब भगवान विष्णु योगनिद्रा में थे और उनके नाभि से एक कमल उत्पन्न हुआ। इस कमल के पुष्प पर ब्रह्माजी प्रकट हुए।
ब्रह्माजी को सृष्टि का निर्माता माना जाता है। वे चार मुख वाले हैं, जिससे वे चारों दिशाओं को देख सकते हैं। उनके चार मुख वेदों का पाठ करते हैं, जिससे सृष्टि के ज्ञान और धर्म का प्रचार होता है। ब्रह्माजी के चार हाथ हैं, जिनमें वेद, माला, कमंडल, और सृष्टि का प्रतीक शंख धारण किए हुए हैं।
वराह भगवान द्वारा पृथ्वी का उद्धार:
प्राचीन काल में, एक असुर हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को अपहृत कर लिया और उसे सागर के गर्भ में छिपा दिया। इसके कारण सम्पूर्ण सृष्टि में अराजकता फैल गई और जीव-जंतु संकट में पड़ गए।
भगवान विष्णु ने इस संकट को दूर करने के लिए वराह अवतार धारण किया। वराह रूप में भगवान ने एक विशाल जंगली सूअर का रूप लिया, जो अत्यंत शक्तिशाली और पराक्रमी था।
वराह भगवान ने समुद्र के गर्भ में जाकर हिरण्याक्ष से युद्ध किया और उसे पराजित किया। इसके बाद, उन्होंने अपनी मजबूत थूथन से पृथ्वी को उठाया और उसे पुनः अपनी स्थिति में स्थापित किया। इस प्रकार, वराह भगवान ने पृथ्वी का उद्धार किया और सृष्टि को पुनः संतुलित किया।
ब्रह्माजी की लोक-रचना:
ब्रह्माजी ने सृष्टि के विभिन्न लोकों की रचना की। उन्होंने तीन मुख्य लोकों की संरचना की, जिन्हें त्रिलोक कहा जाता है:
स्वर्गलोक (सुरलोक): यह देवताओं का लोक है, जहाँ इंद्र, अग्नि, वरुण, और अन्य देवता निवास करते हैं। यह लोक सुख और आनंद का प्रतीक है।
मृत्युलोक (पृथ्वीलोक): यह मनुष्यों का लोक है, जहाँ मानव जाति निवास करती है। यह लोक कर्म और धर्म का क्षेत्र है, जहाँ जीव अपने कर्मों का फल भोगते हैं।
पाताललोक (नागलोक): यह असुरों और नागों का लोक है, जहाँ विभिन्न दैत्य और नाग जातियाँ निवास करती हैं। यह लोक भूमिगत और रहस्यमय है।
इसके अतिरिक्त, ब्रह्माजी ने अन्य विभिन्न लोकों की भी रचना की, जैसे महर्लोक, जनलोक, तपोलोक, सत्यलोक, आदि। इन लोकों में विभिन्न ऋषि, मुनि, और सिद्ध पुरुष निवास करते हैं।
सृष्टि के अन्य तत्व:
ब्रह्माजी ने पंचभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) और त्रिगुणों (सत्व, रजस, तमस) से सम्पूर्ण सृष्टि की रचना की। उन्होंने जीवों की उत्पत्ति, जीवन और मृत्यु का चक्र, और धर्म तथा अधर्म के नियमों की भी स्थापना की।
इस प्रकार, विष्णु पुराण में ब्रह्माजी की उत्पत्ति, वराह भगवान द्वारा पृथ्वी का उद्धार, और ब्रह्माजी की लोक-रचना का विस्तृत वर्णन मिलता है। यह वर्णन न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि सृष्टि के रहस्यमय पहलुओं को भी उजागर करता है।