हिरण्यकशिपु का क्रोध और प्रह्लाद की भक्ति: एक अटूट भक्ति की कथा
यह कथा दैत्यराज हिरण्यकशिपु और उनके पुत्र प्रह्लाद के बीच द्वंद्व की कहानी है। हिरण्यकशिपु, जो स्वयं को ईश्वर मानता था, अपने पुत्र प्रह्लाद की भगवान विष्णु के प्रति अटूट भक्ति से क्रोधित था।
इस कथा में, आप देखेंगे:
- हिरण्यकशिपु का अहंकार और क्रोध
- प्रह्लाद की अटूट भक्ति और दृढ़ संकल्प
- भगवान विष्णु द्वारा प्रह्लाद की रक्षा
- भक्ति की शक्ति और बुराई पर अच्छाई की विजय
हिरण्यकशिपु और प्रह्लाद: भक्ति और अहंकार की कहानी
प्राचीन काल में, दैत्यराज हिरण्यकशिपु नाम का एक शक्तिशाली राजा था। उसने ब्रह्मा जी से वर प्राप्त कर सम्पूर्ण त्रिलोकी (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) को अपने वश में कर लिया था। वह अत्यंत घमंडी और क्रूर था और स्वयं को ही ईश्वर मानता था।
हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद, बचपन से ही भगवान विष्णु का भक्त था। हिरण्यकशिपु को जब यह ज्ञात हुआ कि उसका पुत्र विष्णु का भक्त है, तो वह क्रोधित हो गया और उसने प्रह्लाद को मारने के अनेक प्रयास किए।
हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को:
- अग्नि में डालने का प्रयास किया, लेकिन अग्नि ने प्रह्लाद को छुआ तक नहीं।
- समुद्र में डुबोने का प्रयास किया, लेकिन प्रह्लाद जल से भी बाहर निकल आए।
- विष देने का प्रयास किया, लेकिन विष ने भी प्रह्लाद को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया।
- पर्वतों से गिराने का प्रयास किया, लेकिन प्रह्लाद हर बार सुरक्षित बच गए।
प्रत्येक बार, भगवान विष्णु ने प्रह्लाद की रक्षा की। हिरण्यकशिपु का क्रोध और भी बढ़ गया और उसने अपनी बहन होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश करे।
हिरण्यकशिपु और प्रह्लाद का संवाद: भक्ति और अहंकार का द्वंद्व
हिरण्यकशिपु और प्रह्लाद का संवाद, भक्ति और अहंकार के बीच द्वंद्व का एक अद्भुत उदाहरण है। यह संवाद हमें सिखाता है कि कैसे भक्ति किसी भी परिस्थिति में अटूट रह सकती है, और अहंकार का नाश निश्चित होता है।
आइए, इस संवाद के कुछ अंशों पर नज़र डालते हैं:
1. हिरण्यकशिपु का क्रोध:
जब हिरण्यकशिपु को पता चलता है कि उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त है, तो वह क्रोधित हो जाता है। वह प्रह्लाद से पूछता है कि वह किसकी पूजा करता है।
हिरण्यकशिपु: “वत्स! अब तक अध्ययन में निरंतर तत्पर रहकर तुमने जो कुछ पढ़ा है उसका सारभूत शुभ भाषण हमें सुनाओ।”
प्रह्लाद: “पिताजी! मेरे मन में जो सबके सारांशरूप से स्थित है वह मैं आपकी आज्ञा के अनुसार सुनाता हूँ, सावधान होकर सुनिए। जो आदि, मध्य और अंत से रहित, अजन्मा, वृद्धि-क्षय-शून्य और अच्युत है, समस्त कारणों के कारण तथा जगत के स्थिति और अंतकर्ता उन श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूँ।”
हिरण्यकशिपु प्रह्लाद की भक्ति सुनकर क्रोधित हो जाता है और उसे विष्णु के बारे में प्रश्न पूछता है।
हिरण्यकशिपु: “अरे मुर्ख! जिस विष्णु का तू मुझ जगदीश्वर के सामने धृष्टतापूर्वक निश्शंक होकर बारंबार वर्णन करता है, वह कौन है?”
2. प्रह्लाद की अटूट भक्ति:
प्रह्लाद हिरण्यकशिपु के क्रोध से भयभीत नहीं होते। वे दृढ़ता से भगवान विष्णु की महिमा का वर्णन करते हैं।
प्रह्लाद: “पिताजी! ह्रदय में स्थित भगवान विष्णु ही तो सम्पूर्ण जगत के उपदेशक हैं। उन परमात्मा को छोड़कर और कौन किसी को कुछ सिखा सकता है?”
प्रह्लाद: “भगवान विष्णु सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ हैं। वे ही सृष्टि, स्थिति और पालन के कर्ता हैं।”
प्रह्लाद: “आप चाहे मुझे मार डालें, या मुझे अनेक कष्ट दें, लेकिन मैं भगवान विष्णु की भक्ति कभी नहीं छोड़ूंगा।”
हिरण्यकशिपु प्रह्लाद की भक्ति और दृढ़ संकल्प से क्रोधित हो जाता है। वह प्रह्लाद को मारने का प्रयास करता है, लेकिन भगवान विष्णु हर बार उसकी रक्षा करते हैं।
हिरण्यकशिपु ने अपने विशालकाय दिग्गजों को आदेश दिया कि वे प्रल्हाद को अपने दाँतों से रौंदकर मार डालें, लेकिन प्रल्हाद ने भगवान विष्णु का स्मरण करना नहीं छोड़ा। दिग्गजों के हजारों दाँत प्रल्हाद के वक्षस्थल से टकराकर टूट गए। यह देखकर प्रल्हाद ने अपने पिता हिरण्यकशिपु से कहा कि इसमें उसका कोई बल नहीं है, बल्कि यह भगवान जनार्दन के स्मरण का प्रभाव है जो विपत्ति और क्लेशों का नाश करता है।
हिरण्यकशिपु ने तब दिग्गजों को हटाकर दैत्यगणों को आदेश दिया कि वे प्रल्हाद को जलाने के लिए अग्नि प्रज्वलित करें। जब प्रल्हाद को काष्ठ के ढेर में रखकर अग्नि प्रज्वलित की गई, तब भी प्रल्हाद ने भगवान विष्णु का स्मरण किया और उन्होंने कहा कि अग्नि उन्हें नहीं जला रहा है, बल्कि उन्हें चारों ओर शीतलता का अनुभव हो रहा है, मानो उनके चारों ओर कमल बिछे हुए हों।
इस पर शुक्राचार्य के पुत्र और दैत्यराज के पुरोहितगण, जो महात्मा षंडामर्क आदि थे, सामनीति से दैत्यराज की बड़ाई करते हुए प्रकट हुए।
इस कथा से यह सिखने को मिलता है कि भक्ति और भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण से कोई भी विपत्ति या संकट भक्त को हानि नहीं पहुँचा सकता। भगवान विष्णु की अनुकम्पा से भक्त सभी कष्टों से मुक्त रहते हैं।
यहाँ प्रल्हाद जी ने दैत्यकुमारों को अत्यंत महत्वपूर्ण उपदेश दिया है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं:
विषयों का संग्रह और उनके परिणाम:
- प्रल्हाद जी ने कहा कि जितना अधिक मनुष्य विषयों का संग्रह करता है, उतना ही उसके चित्त में दुःख बढ़ता है। संबंधों के बढ़ने से हृदय में शोकरूपी शल्य स्थिर हो जाते हैं। मनुष्य के पास चाहे जितना भी धन-धान्य हो, वे उसके चित्त में हमेशा बने रहते हैं और उनके नाश का भय भी रहता है।
जीव का वास्तविक स्वरूप:
- प्रल्हाद जी ने बताया कि जीव का वास्तविक स्वरूप नित्य है, जबकि शरीर की अवस्थाएँ (जन्म, बाल्यावस्था, यौवन, वृद्धावस्था) देह के धर्म हैं। यदि मनुष्य अपने कल्याण के लिए बाल्यावस्था में ही प्रयास नहीं करता और सोचता है कि वह युवावस्था या वृद्धावस्था में यह करेगा, तो वह कभी अपने कल्याण-पथ पर अग्रसर नहीं हो पाता।
विवेकी पुरुष की दृष्टि:
- विवेकी पुरुष को चाहिए कि वह बाल्यावस्था में ही अपने कल्याण का यत्न करे, क्योंकि देह की अवस्थाओं की प्रतीक्षा करने से कुछ हासिल नहीं होता।
भगवान विष्णु का स्मरण:
- प्रल्हाद जी ने दैत्यकुमारों को श्रीविष्णु भगवान का स्मरण करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने बताया कि भगवान का स्मरण करने से परिश्रम नहीं होता और स्मरणमात्र से ही अति शुभ फल मिलता है। भगवान विष्णु का निरंतर स्मरण करने से पाप भी नष्ट हो जाते हैं और समस्त क्लेश दूर हो जाते हैं।
संसार का दुखमय स्वरूप:
- प्रल्हाद जी ने कहा कि यह संसार तापत्रय (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक) से दग्ध हो रहा है, इसलिए इन बेचारे जीवों से द्वेष नहीं करना चाहिए। अगर किसी को यह लगे कि बाकी सब आनंद में हैं और वह ही परम शक्तिहीन है, तब भी उसे प्रसन्न रहना चाहिए, क्योंकि द्वेष का फल दुःख ही है।
द्वेष का परिणाम:
- अगर कोई प्राणी वैरभाव से द्वेष भी करे, तो विचारवान व्यक्ति को समझना चाहिए कि वह महामोह से व्याप्त है और इसलिए अत्यंत शोचनीय है।
प्रल्हाद जी ने दैत्यकुमारों को यह उपदेश दिया कि वे विषयों के संग्रह और संबंधों के मोह में फंसकर दुःख को आमंत्रित न करें, बल्कि भगवान विष्णु का स्मरण करके अपने जीवन को सार्थक बनाएं। उनका यह उपदेश संपूर्ण मानव जाति के लिए भी अत्यंत प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है।
हिरण्यकशिपु का क्रोध और होलिका का दाह
हिरण्यकशिपु का क्रोध:
हिरण्यकश्यप, अपने पुत्र प्रह्लाद की भक्ति और अटूट विश्वास से क्रोधित था। प्रह्लाद जितना ही भगवान विष्णु की भक्ति करता था, हिरण्यकश्यप उतना ही क्रोधित होता जाता था। हिरण्यकश्यप, जो स्वयं को ईश्वर मानता था, प्रह्लाद की भक्ति को अपने लिए अपमान मानता था।
हिरण्यकश्यप के प्रयास:
हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के अनेक प्रयास किए, लेकिन हर बार असफल रहा। उसने प्रह्लाद को अग्नि में डालने, समुद्र में डुबोने, विष देने और पर्वतों से गिराने का प्रयास किया, लेकिन भगवान विष्णु ने हर बार प्रह्लाद की रक्षा की।
होलिका को आदेश:
अंत में, हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश करे। होलिका को अग्नि में जलने का वरदान प्राप्त था, जिसके कारण उसे विश्वास था कि वह प्रह्लाद को मारकर स्वयं सुरक्षित बच जाएगी।
होलिका का दाह:
होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश करती है। किन्तु, भगवान विष्णु की इच्छा से, अग्नि केवल होलिका को जलाती है, प्रह्लाद को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता।
परिणाम:
यह घटना हिरण्यकश्यप के अहंकार और क्रूरता का अंत दर्शाती है। हिरण्यकश्यप का वध भगवान विष्णु नृसिंह रूप में करते हैं। प्रह्लाद भगवान की भक्ति और अटूट विश्वास की वजह से जीवित रहते हैं।
प्रल्हादकृत भगवत: गुण-वर्णन और प्रह्लाद की रक्षा के लिए भगवान का सुदर्शनचक्र भेजना
प्रह्लाद, हिरण्यकश्यप नामक दैत्यराज के पुत्र थे। वे बचपन से ही भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे। हिरण्यकश्यप स्वयं को ही ईश्वर मानता था और प्रह्लाद की भक्ति से क्रोधित था। उसने प्रह्लाद को मारने के अनेक प्रयास किए, लेकिन भगवान विष्णु ने हर बार उनकी रक्षा की।
प्रह्लादकृत भगवत में, प्रह्लाद भगवान विष्णु के गुणों का वर्णन करते हैं। वे विष्णु को सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ बताते हैं। वे कहते हैं कि विष्णु ही सृष्टि, स्थिति और पालन के कर्ता हैं। वे भक्तों की रक्षा करते हैं और दुष्टों का नाश करते हैं।
प्रह्लाद की रक्षा के लिए भगवान ने सुदर्शनचक्र भेजा। सुदर्शनचक्र भगवान विष्णु का अस्त्र है और यह अत्यंत शक्तिशाली है। सुदर्शनचक्र ने हिरण्यकश्यप का वध कर दिया और प्रह्लाद को बचा लिया।