विष्णु पुराण भाग 1 के अध्याय शीर्षक(अविद्यादि विविध सर्गों का वर्णन,चातुर्वर्ण्यं-व्यवस्था)।विष्णु पुराण भाग 1 के अध्याय शीर्षक “अविद्यादि विविध सर्गों का वर्णन” और “चातुर्वर्ण्यं-व्यवस्था” में सृष्टि के विभिन्न चरणों, अविद्या के प्रभाव, और चार वर्णों के धार्मिक-सामाजिक व्यवस्था का वर्णन है। इन अध्यायों में समाज के विभिन्न वर्गों की भूमिका, उनके कर्तव्यों का वर्णन, और अविद्या के द्वारा जीवों के अज्ञान का वर्णन किया गया है। यहां धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था के प्रमुख सिद्धांतों और संसार की व्यवस्थाओं का विवरण प्रस्तुत किया गया है, जो सृष्टि के अंतर्गत कार्य करते हैं।

विष्णु पुराण भाग 1 के अध्याय शीर्षक
विष्णु पुराण भाग 1 के अध्याय शीर्षक

अध्याय 5:अविद्यादि विविध सर्गों का वर्णन

विष्णु पुराण में “अविद्यादि विविध सर्गों का वर्णन” अध्याय में सृष्टि के विभिन्न पहलुओं, अविद्या के प्रभाव, और जीवों के धर्मिक और धार्मिक उन्नति के प्रक्रियाओं का वर्णन है। यह अध्याय संसार के उत्पत्ति के रहस्यों और जीवन के विभिन्न आयामों को समझने में मदद करता है, जो अविद्या और विद्या के प्रभावों पर आधारित है। इसमें विशेष रूप से ब्रह्मा, विष्णु, और शिव के अवतार, उनके लीलाएं, और उनके द्वारा सृष्टि की रचना के विभिन्न पहलुओं का वर्णन होता है।

अध्याय 6:चातुर्वर्ण्यं-व्यवस्था, पृथ्वी-विभाग और अन्नादिकी उत्पत्ति का वर्णन

चातुर्वर्ण्यं-व्यवस्था, पृथ्वी-विभाग और अन्नादिकी उत्पत्ति का वर्णन” विष्णु पुराण के अध्यायों में समाज के विभिन्न वर्गीकरण, पृथ्वी के भूगोलिक विभाजन और अन्नादिकी के उत्पत्ति के विवरण को सम्मिलित करता है। यह वर्णन सृष्टि के संरचनात्मक और सामाजिक पहलुओं का अध्ययन करने में मदद करता है, जिसमें चार वर्णों का व्यवस्थित वर्णन, पृथ्वी के विभिन्न भागों का महत्वपूर्ण ब्याख्यान और अन्नादिकी (भोजन की उत्पत्ति) का मूल्यांकन शामिल है। यह अध्याय धार्मिक और सामाजिक संरचनाओं के प्रारूप को समझने में मदद करता है।

अध्याय 5:अविद्यादि विविध सर्गों का वर्णन

विष्णु पुराण के विभिन्न सर्गों में सृष्टि के विविध रूपों और अविद्या (अज्ञान) के प्रभाव का विस्तार से वर्णन किया गया है। इन सर्गों में सृष्टि के विभिन्न चरणों और भगवान विष्णु की महिमा का उल्लेख होता है। यहां अविद्यादि विविध सर्गों का संक्षिप्त वर्णन किया जा रहा है:

  1. अविद्या (अज्ञान) का सर्ग:

    • सृष्टि की प्रारंभिक अवस्था में अविद्या का उदय हुआ, जो जीवों के अज्ञान का कारण बनी। इस सर्ग में जीवों को अपने वास्तविक स्वरूप और परमात्मा से विमुख करने वाली अविद्या का वर्णन है।
    • अविद्या के कारण जीव माया के प्रभाव में आकर संसार में फंसते हैं और जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ जाते हैं।
  2. माहेश्वर सर्ग:

    • इस सर्ग में महेश्वर (शिव) की कृपा से उत्पन्न हुए तामसिक (अंधकारमय) जीवों का वर्णन है।
    • इन जीवों में रजोगुण और तमोगुण की प्रधानता होती है, जो क्रोध, लोभ, और मोह के कारण संसार में भ्रमित रहते हैं।
  3. वैष्णव सर्ग:

    • इस सर्ग में विष्णु की कृपा से उत्पन्न हुए सात्विक (शुद्ध) जीवों का वर्णन है।
    • इन जीवों में सत्त्वगुण की प्रधानता होती है, जो धर्म, ज्ञान, और वैराग्य के मार्ग पर चलते हैं और अंततः मोक्ष प्राप्त करते हैं।
  4. ब्रह्मा सर्ग:

    • इस सर्ग में ब्रह्मा द्वारा सृष्टि के विभिन्न तत्वों और जीवों की रचना का वर्णन है।
    • ब्रह्मा ने देवता, असुर, मनुष्य, और अन्य जीवों की सृष्टि की, और उन्हें उनके कर्तव्यों का पालन करने का आदेश दिया।
  5. प्रजापति सर्ग:

    • इस सर्ग में प्रजापतियों (सृष्टि के प्रणेता) की रचना और उनके द्वारा विभिन्न प्रजातियों का निर्माण किया गया।
    • प्रजापतियों ने विभिन्न प्रकार के जीव-जंतुओं, पक्षियों, और वनस्पतियों की उत्पत्ति की, जिससे संसार में विविधता आई।
  6. मरीचि आदि प्रजापतियों का सर्ग:

    • इस सर्ग में मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलह, क्रतु, पुलस्त्य, और वसिष्ठ जैसे प्रमुख प्रजापतियों का वर्णन है।
    • इन प्रजापतियों ने अपनी संतानों के माध्यम से सृष्टि का विस्तार किया और धर्म की स्थापना की।

सर्गों का महत्व:

अविद्यादि विविध सर्गों का वर्णन हमें यह समझने में मदद करता है कि सृष्टि के विभिन्न तत्व और जीव कैसे उत्पन्न हुए और उनका क्या महत्व है। अविद्या के कारण जीव माया के जाल में फंसते हैं और भगवान विष्णु, शिव, और ब्रह्मा की कृपा से वे धर्म, ज्ञान, और मोक्ष का मार्ग प्राप्त कर सकते हैं। इन सर्गों का अध्ययन हमें सृष्टि की गूढ़ताओं को समझने और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।

चातुर्वर्ण्यं-व्यवस्था, पृथ्वी-विभाग और अन्नादिकी उत्पत्ति का वर्णन
चातुर्वर्ण्यं-व्यवस्था, पृथ्वी-विभाग और अन्नादिकी उत्पत्ति का वर्णन

अध्याय 6:चातुर्वर्ण्यं-व्यवस्था, पृथ्वी-विभाग और अन्नादिकी उत्पत्ति का वर्णन

चातुर्वर्ण्यं-व्यवस्था:

विष्णु पुराण में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का वर्णन है, जो चार वर्णों (जातियों) के आधार पर समाज की संरचना को परिभाषित करती है। यह व्यवस्था वैदिक समाज की सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक संरचना को निर्धारित करती है। चार वर्ण निम्नलिखित हैं:

  1. ब्राह्मण: ब्राह्मणों का कार्य वेदों का अध्ययन और अध्यापन, यज्ञ करना और करवाना, और समाज को धार्मिक और नैतिक शिक्षा देना है।
  2. क्षत्रिय: क्षत्रिय वर्ण के लोग शासन, सुरक्षा और युद्ध के कार्यों में संलग्न होते हैं। उनका मुख्य कार्य राज्य की रक्षा और न्याय व्यवस्था को बनाए रखना है।
  3. वैश्य: वैश्य वर्ण के लोग व्यापार, कृषि और पशुपालन के कार्यों में संलग्न होते हैं। वे समाज के आर्थिक विकास के लिए जिम्मेदार होते हैं।
  4. शूद्र: शूद्र वर्ण के लोग सेवा और श्रम के कार्यों में संलग्न होते हैं। उनका मुख्य कार्य अन्य तीन वर्णों की सेवा करना है।

इस प्रकार, चातुर्वर्ण्य व्यवस्था समाज की स्थिरता और समृद्धि के लिए महत्वपूर्ण है।

पृथ्वी-विभाग:

विष्णु पुराण में पृथ्वी के विभाजन का वर्णन भी मिलता है। इसके अनुसार, पृथ्वी को सात द्वीपों (सप्तद्वीप) में विभाजित किया गया है। ये सप्तद्वीप निम्नलिखित हैं:

  1. जम्बूद्वीप: यह द्वीप सभी द्वीपों में सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण है। इसमें भारतवर्ष भी शामिल है।
  2. प्लक्षद्वीप: यह जम्बूद्वीप के पूर्व में स्थित है।
  3. शाल्मलिद्वीप: यह प्लक्षद्वीप के पूर्व में स्थित है।
  4. कुशद्वीप: यह शाल्मलिद्वीप के पूर्व में स्थित है।
  5. क्रौंचद्वीप: यह कुशद्वीप के पूर्व में स्थित है।
  6. शाकद्वीप: यह क्रौंचद्वीप के पूर्व में स्थित है।
  7. पुष्करद्वीप: यह शाकद्वीप के पूर्व में स्थित है और सबसे छोटा है।

प्रत्येक द्वीप के अपने-अपने पर्वत, नदियाँ और क्षेत्र हैं।

अन्नादिकी उत्पत्ति:

विष्णु पुराण में अन्न (अन्नादि) की उत्पत्ति का वर्णन भी मिलता है। इसके अनुसार, अन्न की उत्पत्ति भगवान विष्णु के द्वारा की गई थी।

भगवान विष्णु ने ब्रह्मा को सृष्टि की रचना के लिए प्रेरित किया। ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की और अन्न को उत्पन्न किया, जो सभी जीवों के जीवन के लिए आवश्यक है। अन्न को भगवान विष्णु का ही रूप माना जाता है, और इसका महत्व सभी जीवों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

अन्न की उत्पत्ति के साथ-साथ, इसके सेवन के नियम, यज्ञों में इसकी उपयोगिता, और इसे प्राप्त करने के लिए कृषि के कार्यों का भी विष्णु पुराण में विस्तार से वर्णन है।

इस प्रकार, विष्णु पुराण में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था, पृथ्वी का विभाजन और अन्न की उत्पत्ति का वर्णन समाज की संरचना, संसाधनों के वितरण और जीवन यापन के नियमों को स्पष्ट करता है।

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