शिवपुराण पढ़ने का महत्व

शिवपुराण का पठन कई हिन्दू धार्मिक संस्कृतियों में विशेष महत्व रखता है।शिवपुराण के पहले अध्याय में अधर्मी देवराज को शिवलोक में कैसे स्थान मिला वो बताया गया है। यह पुराण भगवान शिव के महत्वपूर्ण लीलाओं, कथाओं, और उनके धार्मिक तत्त्वों को समर्पित है। इसका पठन करने से व्यक्ति को मानवता, धर्म, और शिवभक्ति में वृद्धि होती है।

शिव पुराण पढ़ने का महत्व                     शिव पुराण पढ़ने का महत्व

 

शिवपुराण के पठन से व्यक्ति को अपने जीवन में संतुलन, शांति, और सच्चे धर्म के प्रति समर्पित भाव में रहने की प्रेरणा मिलती है। इसके अलावा, यह शिवपुराण भक्ति की ऊर्जा को अपने अंदर संजीवित करने में मदद करता है और व्यक्ति को अपने आत्मा के गहरे संबंध को समझने की दिशा में प्रेरित करता है।

शिवपुराण का पठन करने से व्यक्ति का चित्त शुद्ध होता है और उसे नेगेटिविटी से मुक्ति मिलती है। यह शिवपुराण मानवता के लिए मार्गदर्शक होता है, जो समाज में सद्भावना, समरसता, और धार्मिक उन्नति को प्रोत्साहित करता है।

सम्पूर्ण रूप से, शिवपुराण का पठन करने से व्यक्ति को आध्यात्मिक और धार्मिक उन्नति में सहायता मिलती है और उसे जीवन का सार्थकता समझने में मदद मिलती है।

अधर्मी देवराज : एक शिव पुराण कथा
अधर्मी देवराज : एक शिव पुराण कथा

अधर्मी देवराज का शिवलोक में स्थान

पूर्व की बात है किरातों के नगर में एक ब्राह्मण रहता था, जो ज्ञान में अत्यंत दुर्बल, दरिद्र, रस बेचने वाला तथा वैदिक धर्म से विमुख था। वह स्नान-संध्या आदि कर्मो से भ्रष्ट हो गया था और वैश्यवृति में तत्पर रहता था। उसका नाम देवराज था। वह अपने ऊपर विश्वास करने वाले लोगो को ठगा करता था। उसने ब्राह्मणो, क्षत्रियों, वैश्यों, शुद्रो, तथा दूसरों को भी अनेक बहाने से मारकर वह उनका धन हड़प लिया था परन्तु उस पापी का थोड़ा सा भी धन कभी धर्म के काम में नहीं लगा था। वह वेश्यागामी तथा सभी प्रकार के आचार-भ्रष्ट था

                        एक दिन घूमता-घामता वह दैवयोग से प्रतिष्ठानपुर (झूसी-प्रयाग) में जा पहुँचा। वहां उसने एक शिवालय देखा, जहाँ बहुत-से साधु-महात्मा एकत्र हुए थे। देवराज उस शिवालय में ठहर गया, किन्तु वहां उस ब्राह्मण को ज्वर आ गया. उस ज्वर से उसको बड़ी पीड़ा होने लगी। वहां एक ब्राह्मण देवता शिव पुराण की कथा सुना रहे थे। ज्वर में पड़ा हुआ देवराज ब्राह्मण के सुखार्विन्द से निकली हुई उस शिव कथा को निरंतर सुनता रहा। एक मास के बाद वह ज्वर से अत्यंत पीड़ित होकर चल बसा। यमराज के दूत आएं और उसे पाशो से बांधकर बलपूर्वक यमपुरी ले गए।  इतने में ही शिवलोक से भगवान् शिव के पार्षदगण आ गए। उनके गौर अंग (स्वेत अंग) कपूर के समान उज्जवल थे, हाथ त्रिशूल से सुशोभित हो रहे थे, उनके सम्पूर्ण अंग भस्म से उद्धासित थे और रुद्राक्ष की मालाएँ उनके शरीर की शोभा बढ़ा रही थी। वे सब-के-सब क्रोधपूर्वक यमपुरी में गए और यमराज के दूतों को मारपीटकर, बारम्बार धमकाकर उन्होंने देवराज को उनके चंगुल से छुड़ा लिया और अत्यंत अद्भुत विमान पर बिठाकर जब वे शिवदूत कैलाश जाने को उद्यत हुए, उस समय यमपुरी में बड़ा कोलाहल मच गया। उस कोलाहल को सुनकर धर्मराज अपने भवन से बाहर आये। साक्षात् दूसरे रुद्रों के समान प्रतीत होनेवाले उन चारो दूतों को देखकर धर्मज्ञ धर्मराज उनका विधिपूर्वक पूजन किया और ज्ञानदृष्टि से देखकर सारा वृतांत जान लिया। उन्होंने भय के कारण भगवान शिव के उन महात्मा दूतों से कोई बात नहीं पूछी, उलटे उन सबकी पूजा एवं प्रार्थना की।  तत्पश्चात वे शिवदूत चले गए और वहां पहुंचकर उन्होंने उस ब्राह्मण को दयासागर साम्ब शिव के हाथों में दे दिया। 

चंचुला का संसार से वैराग्या

समुन्द्र के निकटवर्ती प्रदेश में एक वास्कल नामक ग्राम था, जहाँ वैदिक धर्म से विमुख महापापी द्विज निवास करते थे। वे सब-के-सब बड़े दुष्ट थे, उनका मन दूषित विषय भोगों में ही लगा रहता था। वे न देवताओं पर विश्वास करते थे न भाग्य पर; वे सभी कुटिल वृत्तिवाले थें। किसानी करते और भाँति-भाँति के घातक अस्त्र-शस्त्र रखते थें। वे व्यभिचारी और खल थें। ज्ञान, वैराग्य तथा सद्धर्म का सेवन ही मनुष्य के लिए पुरुषार्थ होता है — इस बात को वे बिलकुल नहीं जानते थे। वे सभी पशुबुद्धिवाले थें।  (जहाँ द्विज ऐसे हों, वहाँ के अन्य वर्णों के विषय में क्या कहा जाय।) अन्य वर्णों के लोग भी उन्हीं की भाँति कुत्सित विचार रखनेवाले, स्वधर्म विमुख एवं खल थें; वे विषयभोगों में ही डूबे रहते थें। वहां की सब स्त्रियाँ भी कुटिल स्वभाव की स्वेच्छाचारिणी, पापासक्त, कुत्सित विचारवाली और व्यभिचारिणी थीं। वे सद्व्यवहार तथा सदाचार से सर्वथा शून्य हैं। इस प्रकार वहां दुष्टों का ही निवास था। 

चंचुला का संसार से वैराग्या                                     चंचुला का संसार से वैराग्या

                      उस वास्कल नामक ग्राम में किसी समय एक बिंदुग नामधारी ब्राह्मण रहता था, वह बड़ा अधर्मी था। दुरात्मा और महापापी था। यद्यपि उसकी स्त्री बड़ी सुन्दर थी, तो भी वह कुमार्ग पर ही चलता था। उसकी पत्नी का नाम चंचला था; वह सदा उत्तम धर्म के पालन में लगी रहती थी, तो भी उसे छोड़कर वह दुष्ट ब्राह्मण वेश्यागामी हो गया था। इस तरह कुकर्म में लगे हुए उस बिन्दुग के बहुत वर्ष व्यतीत हो गए। उसकी स्त्री काम से पीड़ित होने पर भी स्वधर्मनाश के भय से क्लेश सहकर भी दीर्घकाल तक धर्म से भ्रष्ट नहीं हुई। परन्तु दुराचारी पति के आचरण से प्रभावित हो आगे चलकर वह स्त्री भी दुराचारिणी हो गयी। 

                        इस तरह दुराचार में डूबे हुए उन गूढ़ चित्तवाले पति-पत्नी का बहुत-सा समय व्यर्थ बीत गया।  तदन्तर शूद्रजातीय वेश्या का पति बना हुआ वह दूषित बुद्धिवाला दुष्ट ब्राह्मण बिन्दुग समयानुसार मृत्यु को प्राप्त हो नरक में जा पड़ा। बहुत दिनों तक नरक के दुःख भोगकर वह वह गूढ़ बुद्धि पापी विंध्य पर्वत पर भयंकर पिशाच हुआ।  इधर दुराचारी पति बिन्दुग के मर जाने पर वह मूढ़ हृदया चंचला बहुत समय तक पुत्रों के साथ अपने घर में ही रही। 

                               एक दिन दैवयोग से किसी पुण्य पर्व के आने पर वह स्त्री भाई-बंधुओं के साथ गोकर्ण-क्षेत्र में गयी। तीर्थयात्रिओं के संग से उसने भी उस समय जाकर किसी तीर्थ के जल में स्नान किया। फिर वह साधारणतया (मेला देखने की दृष्टि से) बंधू जनों के साथ यत्र-तत्र घूमने लगी। घूमती-घामती किसी देवमंदिर में गयी और वहां उसने एक दैवज्ञ ब्राह्मण के मुख से भगवान् शंकर (शिव) की परम पवित्र एवं मंगलकारिणी उत्तम पौराणिक कथा सुनी। कथावाचक ब्राह्मण कह रहे थे की ‘जो स्त्रियाँ पर पुरुषों के साथ व्यभिचार करती है, वे मरने के बाद जब यमलोक में जाती हैं, तब यमराज के दूत उनकी योनि में तपे हुए लोहे का परिध डालते हैं। पौराणिक ब्राह्मण के मुख से यह वैराग्य बढ़ानेवाली कथा सुनकर चंचला भय से व्याकुल होकर वहां काँपने लगी।  जब कथा समाप्त हुई और सुननेवाले सब लोग वहां से बाहर चले गए, तब वह भयभीत नारी एकांत में शिवपुराण की कथा वाचनेवाले उन ब्राह्मण देवता से बोली। 

                             चंचला ने कहा — ब्रह्मण! मैं अपने धर्म को नहीं जानती थी। इसलिए मेरे द्वारा बड़ा दुराचार हुआ है। स्वामिन्! मेरे ऊपर अनुपम कृपा करके आप मेरा उद्धार कीजिये। आज आपके वैराग्य-रस से ओतप्रोत इस प्रवचन को सुनकर मुझे बड़ा भय लग रहा है। मैं काँप उठी हूँ और मुझे इस संसार से वैराग्य हो गया है। मुझ मूढ़ चित्तवाली पापिनी को धिक्कार है। मैं सर्वथा निंदा के योग्य हूँ। कुत्सित विषयों में फँसी हुई हूँ और अपने धर्म से विमुख हो गयी हूँ। हाय! न जाने किस-किस घोर कष्टदायक दुर्गति में मुझे पड़ना पड़ेगा और वहां कौन बुद्धिमान पुरुष कुमार्ग में मन लगानेवाली मुझ पापिनी का साथ देगा। मृत्युकाल में उन भयंकर यमदूतों को मैं कैसे देखूंगी? जब वे बलपूर्वक मेरे गले में फंदे डालकर मुझे बांधेगे, तब मैं कैसे धीरज धारण कर सकूँगी। नरक में जब मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े किये जायेंगे, उस समय विशेष दुःख देनेवाली उस महायातना को मैं वहां कैसे सहूँगी? हाय! मैं मारी गयी! क्योंकि मैं हर तरह के पाप में डूबी रही हूँ।  ब्रह्मन ! आप ही मेरे गुरु, आप ही माता और आप ही पिता हैं।  आपकी शरण में आयी हुई मुझ दीन अबला का आप ही उद्धार कीजिये।

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